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दोसरों को आईना दिखाने वाला मीडिया किया अपनी शक्ल खुद देखने को तैयार है ?
एक बार फिर मीडिया के कुछ लोगों ने अपने ज़हनी दिवालियापन का तमाशा लोगों को जम कर दिखाया। फतवे की आड़ में उन्होने भी अपनी ज़ुबान चलाई जिनकी नज़रे भी नहीं उठनी चाहिए थी। दारुलउलूम ने साफ कर दिया है कि उसकी तरफ से कोई फतवा जारी नहीं किया गया। लेकिन इस सब के बावजूद अगर मौजूदा माहौल और महिलाओं की बढती असुरक्षा और वर्कप्लैस पर होने वाले हरासमेंट को देखा जाए तो कोई भी माता पिता जब तक उसकी बेटी घर लौट कर नहीं आती बिना किसी भी फतवे के ही बेचैन रहता है। निरुपमा नाम की पत्रकार काम करने या अपने साथी से दोस्ती के दौरान प्रेगनेंट हो गई उसके मां बाप ने जो किया वो किसी फतवे का नतीजा नहीं था । इसके अलावा खुद महिला सघंटन वर्क प्लेस पर महिलाओं के शोषण और उनके साथ आए दिन होने वाले सलात्कार (जीं हां जब बात फैलती है तो उसको बलात्कार कहा जाता है और बात ना खुले तो सलात्कार ) के खिलाफ आवाजे उठाते रहे हैं। लेकिन उनकी आवाज़ सुनने की फुरसत किसे है। इसी मीडिया की कितनी एंकरों और महिला कर्मियों की कितनी अश्लील सीडी और एमएमएस बाजार में चल रही हैं ये सब जानते हैं..! मीडिया की कितनी ही महिला कर्मियों ने वर्कप्लेस पर होने वाले अपने शोषण से तंग आकर आत्म हत्या किस फतवे के तहत की ये कौन बताएगा..? इतना ही नहीं अगर लड़कियों के घर से बाहर काम करने या मर्दों के साथ काम करने जाने की बात हो तो हर शर्मदार और सुसंस्कृत माता पिता अपनी बेटी को यही हिदायत देगा कि बेटी मर्दों से ज्यादा घुलना मिलना मत, या ज़रा सोच समझ कर, या बेबाकी से परहेज करना। हालाकि माता पिता की इस नसीहत को भी फतवे की भाषा बनाया जा सकता है। ऐसे में कुछ कथित मुस्लिम बुद्दीजीवी भी अपने हाथ साफ करने से नहीं चूकते। जावेद अख्तर को सुरक्षा देने वाली पुलिस को चाहिए कि उनको धमकी देने वाले को भी तो सामने लाए। कि आखिर वो है कौन..? कहीं सनातन जैसी किसी संस्था का ही कोई सिरफिरा हुआ तो..? इसके अलावा जावेद अख्तर कब से इतने बड़े आलिम हो गये कि वो मज़हबी मामलो में भी दखल रखने लगे। आम मुसलमान हो या खास कोई भी अपनी बेटी या बेटे का निकाह अगर जावेद अख्तर से पढावा ले तो ज़रा बताएं …? फतवों को बदनाम करने वालों ने ये कभी नहीं दिखाया कि इस्लाम ही एक ऐसा मज़हब है जिसके पैगम्बर(स.) ने फरमाया कि इल्म हासिल करो चाहे चीन ही क्यों ना जाने पड़े। इस हदीस में बेहद ख़ास बात है। वो ये कि उस जमाने में ना तो चीन में इस्लाम पहुचा था और ना ही चीन साइंस और टेक्नोलोजी में एंडावास था। अगर इल्म यानि शिक्षा को सिर्फ इस्लामी शिक्षा से जोडा जाता तो चीन के बजाए अरब बुलाने की बात होती। इसके अलावा इस्लाम ने महिलाओं को बाज़ारू या ताड़न की अधिकारी ना बना कर इज्जत और उसके कदमों में जन्नत तक रख दी है। लेकिन एक कुठित मानसिकता और पैमानों के दोहरे चश्मे लगाने वालो को प्रज्ञा ठाकुर पर चर्चा करने या नक्सलियों को आंतकी कहने में झिझक ही रहती है। लेकिन चूंकि हर बार हर मामले में चाहे इमराना हो या आई जी पांडया। कुछ लोगों के दोहरे पैमाने बन चुके हैं। अगर आधूनिक राधा आईजी पंड्या का नाम कोई सा खान होता तो उस को भी नए शगूफे की तरह पेश किया जाता। मर्द होकर पंडा की नथनी और साड़ी को भी कोई ना कोई मंज़हबी रूप दिया जाता। इस्लाम सिर्फ एक मज़हब ही नहीं, बल्कि ज़िन्दगी को जीने का एक मुकम्मल तरीका है। कानून होता ही इंसानों के लिए है, हैवान किसी कानून को कब मानते हैं.. साथ ही आलिमो को भी चाहिए कि हर मामले पर बोलने से पहले इस बात का ख्याल रखें कि आपकी एक गलत बात बहुत दूर तक और बहुत देर तक असर लाएगी।
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