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अयोध्या फ़ैसले पर प्रशांत भूषण
salmanahmed70@yahoo.co.in
बाबरी मस्जिद-राम जन्म भूमि मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला न केवल न्यायिक दृष्टि से अस्वस्थ तथा असंतुलित है बल्कि राष्ट्र के धर्मनिर्पेक्ष ताने-बाने को भी बाधित करने वाला है। फ़ैसले में न्यायिक त्रुटियाँ पूरी तरह मौजूद हैं। अदालत ने सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड द्वारा दायर 1961 की अर्ज़ी को हदबंदी के आधार पर ख़ारिज कर दिया, लेकिन बाल भगवान, राम लला द्वारा दायर 1989 की अर्ज़ी को समय के साथ बरक़रार रखा। 2 जजों (अग्रवाल और शर्मा) का कहना है कि वह यह नहीं कह सकते कि बाबरी मस्जिद का निर्माण कब किया गया और किसने किया। लेकिन इसके साथ ही वह यह कह सकते हैं कि बाबरी मस्जिद मंदिर ध्वस्त करके निर्माण की गई। जस्टिस शर्मा ने यह माना कि बाबरी मस्जिद के स्थान पर विशाल मंदिर था और यही राम के पिता दशरथ का महल था। उनके लिए एएसआई की 1988 की रिपोर्ट भी आश्चर्यजनक है जिसमें यह कहा गया है कि दो हज़ार वर्ष से पूर्व अयोध्या में मानव कंकालों का वजूद नहीं था और राम का जन्म यह बताता है कि लाखों वर्ष पूर्व उन्होंने अपना स्थान बनाया। यहां तक कि पुराने मंदिर की मौजूदगी एएसआई की 2003 की रिपोर्ट के आधार पर मान ली गई, जिसमें इसका कोई ब्योरा नहीं है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर ध्वस्त करके किया गया। बल्कि इसमें यह कहा गया है कि मस्जिद के नीचे हिंदू मंदिर के अवशेष और मल्बे मिले हैं। सर्वे रिपोर्ट में इसका कोई विवरण नहीं है और न ही उसने इस सच को स्वीकार किया है कि मस्जिद की भूमि के नीचे मिलने वाले मलबे से उसकी पुष्टि होती है कि मस्जिद का निर्माण मंदिर ध्वस्त करके किया गया। मस्जिद के नीचे मलबे में पशुओं की अस्थियां भी मिलीं जिस पर गारा चूना इत्यादि भी हिंदुओं के मंदिर को नकारता है उसी प्रकार मस्जिद के निर्माण की पुष्टि करता है।
सबसे अधिक चैंकाने वाली बात यह है कि फ़ैसले में बाबरी मस्जिद के गंुबद वाली ज़मीन पर राम लला के स्वामित्व को मान लिया (जिसका अर्थ है कि वीएचपी गार्जियन है) इसलिए कि जजों ने हिंदुओं को यह अधिकार दे दिया कि गंुबद के नीचे राम के जन्म स्थान पर धार्मिक प्रार्थना करे। जजों ने यह निष्कर्ष कैसे निकाल लिया कि गुंबद के नीचे राम का जन्म स्थान है। क्या सर्वे रिपोर्ट हिंदुओं की इस कल्पना का समर्थन करती है? हम यह नहीं मान सकते हैं कि हिंदुओं की अक्सरियत इसको स्वीकार करेगी। दरअसल हिंदू 1955 से मस्जिद परिसर में धार्मिक प्रार्थनाएं करते आए हैं।
यह इतिहास इसके विरुद्ध है कि 1949 में मस्जिद के गंुबद के नीचे राम लला पैदा हुए। इसके बावजूद दिसम्बर 1949 में गंुबद के नीचे श्री राम की मूर्ति रख दी गई। फिर राम जन्म भूमि लिब्रेशन मूवमेंट हिंदुओं से सहयोग के लिए सामने आया। इस आंदोलन से राम के नाम पर अधिकतर वह लोग जुड़े जिनके अंदर कट्टरता तथा धार्मिक उनमाद पाया जाता था और मुस्लिम शासकों के प्रति प्रतिशोध की भावना काम कर रही थी, लेकिन क्या राम के उस स्थान पर जन्म के बारे में हिंदुओं की आस्था होना काफ़ी है। अगर ऐसा हो भी जाए तो क़ानूनी आधार पर ‘राम लला और उनके गार्जियन वीएचपी’ को विवादित भूमि नहीं दी जा सकती है। किसी की आस्था के आधार पर विवादित सम्पत्ति का विभाजन किया जा सकता है, अगर ऐसा होता है तो यह बहुत ही ख़तरनाक है। विशेषरूप से हमारे देश के भीतर जहां विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। अगर देश में धार्मिक कट्टरता और साम्प्रदायिकता इसी तरह स्थान पाती रही तो बहुसंख्यक वर्ग, बलवान लोग निर्बलों की सम्पत्तियों तथा जायदादों पर आस्था को आधार बनाकर क़ब्ज़ा करते रहेंगे। क्या यह फ़ैसला ऐसा नहीं है कि जिसमें बहुसंख्यकों का ध्यान रखते हुए तथा अल्पसंख्यक वर्ग को दलित तथा आदिवासी मानते हुए किया गया। जैसा कि बृहमणवादियों के समय में हुआ करता था।
फ़ैसले का एक भाग क्या समझौते का आधार बन सकता है। फ़ैसले के उस भाग में जिसमें यह कहा गया है कि हिंदू-मुस्लिम दोनों 1955 से ही विवादित स्थल पर धार्मिक प्रार्थनाएं करते आए हैं क्या एक परिसर में संयुक्त रूप से दोनों समुदायों के लोग पूजा कर सकते हैं? तो दोनों समुदाय के लोगों को संयुक्त रूप से भूमि विभाजित कर दी जाए। लेकिन राम लला के जन्म स्थान को राम जन्म भूमि लिब्रेशन मूवमेंट के मद्दे नज़र राम लला को दे दी जाए, इस प्रकार का फ़ैसला क़ानून और शिष्टाचार की दृष्टि में चिंताजनक है, जिससे धार्मिक उनमाद को सर उभारने का अवसर मिलेगा और वह मुस्लिम विरोधी भावनाओं के तहत उनके अन्य पूजा स्थलों पर भी क़ब्ज़े की कोशिश करेंगे और फिर मामला न्यायालय में जाएगा और फ़ैसला आस्था के आधार पर उनके पक्ष में दे दिया जाएगा।
कुछ समझदार लोग यह कह रहे हैं कि मुसलमानों को इस फ़ैसले को स्वीकार कर लेना चाहिए। शायद उन्हें यह मालूम नहीं कि यह एक चापलूसी है और इससे धार्मिक उनमाद और साम्प्रदायिकता उसे एक विजय के रूप में लेगी और आगे भी अन्य पूजा स्थलों पर क़ब्ज़े के लिए मार्ग प्रशस्त कर लेगी। फासीवादी शक्तियों की मँुह भराई करके अन्याय की क़ीमत पर शांति नहीं ख़रीदी जा सकती। क्योंकि वह बहुत अधिक समय तक क़ायम नहीं रह सकती। हमें यह याद रखना चाहिए कि इतिहास का एक पार्ट उदाहरण बन जाता है। कुछ पश्चिमी देशों का प्रयास हिटलर के रास्ते में विफल हुआ यह मामला भी इसी के समान है। इसलिए हम यह महसूस करते हैं कि इस फ़ैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी जानी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सभी समुदाय के लोगों के लिए स्वीकारीय होगा। हम यह भी समझते हैं कि अगर सर्वोच्च न्यायालय फ़ैसले में संशोधन करके सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड को उसकी भूमि सुपुर्द करेगा तो यह भाईचारे का संकेत होगा जिसमें भूमि मस्जिद की होगी और साइड में मंदिर होगा। यहां भूमि का महत्व नहीं है बल्कि सिद्धांत का महत्व है। क्या हमारा देश धर्मनिर्पेक्ष कानून द्वारा चलाया जाएगा अथवा आस्था और अराजकता द्वारा। यह ऐसा मामला है जिसमें सब परेशान हैं।
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