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दर्जनों ग़ैर मुस्लिम देश इस्लामिक बैंकिंग से उठा रहे हैं लाभ, भारत की आँख कब खुलेगी ?
सलमान अहमद
salmanahmed70@yahoo.co.in
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देश में इस्लामिक बैंकिंग शुरू करने की बात एक बार फिर उठी है। डॉ. मनमोहन सिंह ने आरबीआई से भारत में इस्लामिक बैंकिंग की मांग पर गौर करने के लिए कहा है । रिजर्व बैंक के मौजूदा नियमों के तहत फिलहाल देश में इस तरह की बैंकिंग नहीं हो सकती इस लिए के रिजर्व बैंक बियाज को ख़त्म करना नहीं चाहता । शरीयत के कानूनों के मुताबिक धन पर ब्याज कमाना हराम है, इसलिए मजहबी मुसलमान अपना पैसा बैंकों में डालने से परहेज करते हैं। उन्हें बैंकिंग से जोड़ने के लिए इस्लामिक बैंकिंग का रास्ता निकाना बहुत ज़रोरी है जिसमें ब्याज की जगह मुनाफे में हिस्सेदारी का प्रावधान है। बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट के मौजूदा प्रावधानों में संशोधन करके देश में ऐसी बैंकिंग की शुरुआत हो सकती है।
केरल स्टेट इंडस्ट्रियल डिवेलपमेंट कॉरपोरेशन ने प्राइवेट कंपनियों के साथ मिलकर इस दिशा में कदम बढ़ाया था। केरल सरकार का प्रस्ताव था कि शरीयत बोर्ड यह तय करे कि बैंक प्राप्त हुए धन का निवेश कहां करे और फिर इस निवेश से मिले मुनाफे को जमाकर्ताओं में बांट दिया जाए। लेकिन कुछ लोगों ने इसका विरोध किया जिस की वजह से बात आगे नहीं बढ़ सकी।
इस्लामिक बैंकिंग से भारत खास तौर पर खाड़ी और मध्य पूर्व के देशों से अरबों डॉलर का निवेश खींच सकता है। दुनिया में करीब 500 इस्लामिक बैंकों के जरिए सालाना 1000 अरब डॉलर का कारोबार होता है। 2020 तक इसके 4000 अरब डॉलर तक पहुंचने का अनुमान है। अगर देश में इस्लामिक बैंकिंग की खिड़की खोली जाती है तो विशाल पूंजी का काफी हिस्सा भारत में भी आएगा।
हमारे देश में इस्लामिक बैंकिंग की जरूरत सिर्फ विदेशों, खास तौर पर मुस्लिम देशों से भारी मात्रा में पूंजी लाने के लिए ही नहीं, अपने देश में मौजूद 15 करोड़ से ज़ियादाह मुसलमान आबादी को बैंकिंग से जोड़ने के लिए भी जरूरी है। अभी बहुत सारे मुसलमान अपनी धार्मिक मान्यताओं के तहत अपना पैसा बैंकों को नहीं देते हैं , लेकिन वह धन हमारे इस्लामिक बैंकों के पास आ सकता है। हैरानी की बात यह है कि अभी तक हमारे देश में इसके बारे में नहीं सोचा गया, जबकि ऐसी बैंकिंग अमेरिका, ब्रिटेन, चीन और हांगकांग सहित कई दूसरे देशों में बहुत ही कामयाब तरीके से हो रही है। हमारे देश में जो नॉर्मल बैंकिंग हो रही है वह असेट बेस्ड बैंकिंग है। इस तरह की बैंकिंग में शेयर, डिबेंचर आदि का ट्रांसफर नहीं होता। इसमें जमा धन पर ब्याज देने और दिए गए कर्ज पर ब्याज लेने का नियम है। इस्लामिक बैंकिंग में ब्याज की कोई जगह नहीं है। वहां न कोई लेनदार है, न कोई देनदार। जो व्यक्ति बैंक को पैसा देता है, वह उसका पार्टनर बन जाता है और बैंक को हुए मुनाफे में उसे हिस्सा मिलता है। देश में इस तरह की बैंकिंग शुरू करने में राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी ही मुख्य बाधा है।
सवाल यह उठता है कि जिस पैसे की क्रय वैल्यू आज 100 है और अगर वह अगले वर्ष 90 या 88 रह जाए तो तब क्या होगा? मूल्य के क्रय मूल्य में ह्रास नहीं होना चाहिए, और अगर होता है तो उसे कॉमपेनसेट किया जाना चाहिए. इस के लिए कोई ऐसा सिद्धांत या सूत्र ढूँढना होगा की डेपॉज़िटर को हानि ना पहुंचे . भारत जैसे देश में जहाँ प्रति वर्ष क्रय मूल्य ह्रास 10 से 12% है इसी ह्रास पर तो बैंक, रियल एस्टेट, ऑटो, शेयर्स, फिनानसियाल कंपनीज़ चाँदी काट रही हैं. इसीसे तो ग़रीब डेपॉज़िटर को लूटा जा रहा है. इस तरह की ना इन्सफियों से बचने का बस एक ही रास्ता है और वोह है इस्लामिक बैंकिंग. ये बहुत ही ताज्जुब की बात है के अंग्रेजों के बनाये होए नुकसान पहुंचाने वाले बैंकिंग सिस्टम से हम अभी तक चिपके हुए हैं, जबके हमारे पास इस्लामिक बैंकिंग जैसा लाभदायक बैंकिंग सिस्टम मौजोद है। दुनिया के दर्जनों ग़ैर मुस्लिम देश जिन में अमरीकी और यूरुपी मुल्क भी शामिल हैं इस्लामिक बैंकिंग से खूब फायेदा उठा रहे हैं लेकेन भारत अभी तक सोचने में ही लगा हुआ है।
लंदन स्कूल ऑफ एकनॉमिक्स के सहसंस्थापक जार्ज बर्नार्ड शॉ ने ७५ वर्ष पहले ही यह भविश्वाणी कर दी थी कि Fiat Money की बदोलत विश्व अर्थव्यवस्था पर अधिपत्य जमाने वाले यूरोप के पास 100 वर्षो बाद इस्लामी अर्थव्वयस्था को अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नही बचेगा. कम्युनिस्म के पतन के बाद ब्याज युक्त बॅंकिंग के द्वारा पूरे विश्व को अपना आर्थिक गुलाम बनाने वाले यहूदियों ने इस्लाम को ही अपने सशक्त प्रतिस्पर्धी के रूप मे आँका था और इस्लाम के विरुद्ध एक युद्ध घोषित कर दिया. आज मुस्लिम और इस्लाम के विरुद्ध एक सुनियोजित युद्ध इसी ब्याज युक्त अर्थव्यवस्था को बचाए रखना है जिसने पूरे विश्व का हाल बेहाल कर डाला है. इस्लामी अर्थव्यवस्था ही विश्व के सामने सम्मानित जीवन और दुनिया की अर्थव्यवस्था को बचाए रखने का एक मात्र विकल्प बचा है.
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