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अकबरुद्दीन ओवैसी की गिरफ़्तारी, कुछ तीखे सवाल

Salman Ka Blog
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भड़काऊ भाषण देने पर मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के विधायक अकबरुद्दीन ओवैसी की गिरफ़्तारी, गंभीर आरोपों के अंतर्गत उनके ख़िलाफ़ कई नगरों और अनेक पुलिस स्टेशनों में मामले दर्ज होना और अंतत: आंध्र प्रदेश हाईकोर्ट के एक जज की ओर से उन्हें लताड़ा जाना देखकर ऐसा लगता है कि देश में क़ानून, न्यायिक और पुलिस व्यवस्था अब एक बिकुल नए दौर में प्रवेश कर गई है.

ऐसा लग रहा है कि अब किसी भी क़ानून तोड़ने वाले के लिए कोई जगह नहीं है चाहे वो कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो.

अकबरुद्दीन और उनकी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन पार्टी मुस्लिम समुदाय का प्रतिनिधि होने के दावेदार रही है. जब तक वो मुसलमानों की इन शिकायतों को प्रकट कर रहे थे कि उनके साथ अन्याय हो रहा है और पुलिस-प्रशासन उनके साथ भेदभाव करते हैं वहाँ तक तो बात ठीक थी क्योंकि कानून और संविधान भी हर नागरिक को इसका अधिकार देता है.

लेकिन जब कोई इसी बात को ऐसे अंदाज़ में कहने लगे जो हिंसा भड़का सकता है और दो समुदायों के बीच नफ़रत और दूरी पैदा कर सकता है तो फिर वह उसी क़ानून से टकराने लग जाता है.

अकबरुद्दीन के भाषण के जो भाग यू ट्यूब के ज़रिए प्रसारित हुए हैं उससे लगता है कि अकबरुद्दीन ने कानून का कई तरह से उल्लंघन किया.

अकबरुद्दीन की ये शिकायत क़ानून के दायरे में हो सकती है कि मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जा रहा है लेकिन पुलिस को हटाकर हिंदुओं को ताक़त दिखाने की चुनौती देने को क़ानून बर्दाश्त नहीं कर सकता. ये बात किसी विधायक के मुंह से अच्छी भी नहीं लगती.

चारमीनार से सटाकर अवैध रूप से मंदिर बनाया जाना और उसके विस्तार की अनुमति देना क़ानून और सुप्रीम कोर्ट दोनों के आदेशों का उल्लंघन है. इस पर आपत्ति समझी जा सकती है लेकिन इसके लिए हिंदू देवी देवताओं का अपमान का हक़ किसी को नहीं दिया जा सकता.

राजनीतिक लड़ाई को सांप्रदायिक रंग देना किसी के हित में नहीं हो सकता.

लेकिन इस मामले ने कई और सवाल खड़े किए हैं जिनका जवाब भी तलाश करना चाहिए.

पहला तो ये कि क्या अकबरुद्दीन पहले व्यक्ति या नेता हैं जिन्होंने भड़काऊ भाषण दिया है? या किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई हो? या कानून और देश को चुनौती दी हो?

ज़ाहिर है कि ऐसा नहीं है. अगर केवल गत एक-दो दशकों की ही बात करें तो बाल ठाकरे, अशोक सिंघल से लेकर प्रवीण तोगड़िया, साध्वी ऋतंभरा, आचार्य धर्मेन्द्र तक न जाने कितने ही नाम हैं जिन्होंने न केवल भड़काऊ भाषण दिए बल्कि कई बार उसका परिणाम बड़े पैमाने पर दंगों और ख़ून ख़राबे की सूरत में निकला. 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा ने पूरे देश में कैसी आग भड़काई थी ये देश के राजनीतिक इतिहास के पन्नों में ठीक तरह से दर्ज है.

अगर ‘एक्शन-रिएक्शन’ की बात अकबरूद्दीन ने की है तो 1984 में राजीव गांधी ने और 2002 में नरेंद्र मोदी ने क्या ऐसी ही बात नहीं कही थी?

तो क्या इस देश में सबके लिए अलग-अलग क़ानून है?

इसी हैदराबाद नगर में गत सप्ताह ही विश्व हिन्दू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया के ख़िलाफ़ भी भड़काऊ भाषण देने का एक मामला दर्ज किया गया है. तो क्या तोगड़िया को भी हैदराबाद पुलिस उसी तरह गिरफ्तार करेगी और जेल भेजेगी?

इससे पहले आचार्य धर्मेंद्र और साध्वी ऋतंभरा के ख़िलाफ़ दर्ज मामलों में क्या कार्रवाई हुई यह भी आंध्र प्रदेश की पुलिस को बताना चाहिए.

दिलचस्प पहलू ये है कि अकबरुद्दीन के ख़िलाफ़ भी इससे पहले भी इसी तरह के मामले दर्ज हैं तो फिर आज से पहले उन पर कार्रवाई क्यों नहीं हुई?

लगता तो ये है कि मामला क़ानून और व्यवस्था, समाज और समरसता से ज़्यादा राजनीतिक है.

जब तक मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन कांग्रेस के साथ थी तब तक अकबरूद्दीन के भड़काऊ भाषण भी अपराध नहीं था अब जबकि मजलिस ने कांग्रेस के ख़िलाफ़ राजनीतिक युद्ध छेड़ रखा है तो सत्तारूढ़ कांग्रेस की सरकार को ये देशद्रोह का मामला दिख रहा है.

दरअसल ये भड़काऊ भाषण, सांप्रदायिक सौहार्द्र को ख़त्म करने की चेष्टा और इसी तरह की दूसरी कोशिशों पर सरकार और उसकी पुलिस के नज़रिए में एक तरह का दोगलापन दिखता है.

इसी दोगलेपन ने कई उन्मादी नेताओं को लोगों की नज़रों में हीरो बनाया है. इस बार वही अकबरुद्दीन के साथ हो रहा है और वो कुछ मुसलमानों के हीरो बन रहे हैं.

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