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एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी की दावेदारी फिलहाल खारिज हो गई है। भाजपा नेताओं से रायशुमारी के बाद संघ ने यह तय किया है। भाजपा नेताओं की दलील है कि मोदी को प्रोजेक्ट करते ही भ्रष्टाचार और महंगाई का मुद्दा गौण हो जाएगा। सांप्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्षता पर राजनीति शुरू हो जाएगी। ऐेसे में एनडीए कुनबा बढऩा तो दूर जदयू जैसे मौजूदा घटक दल उससे अलग हो जाएंगे।देश के तमाम सर्वे और ओपिनियन पोल में नरेंद्र मोदी अगले लोकसभा चुनावों में प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत दावेदार के तौर पर उभरे हैं। वे कांग्रेस के राहुल गांधी, सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह जैसे नेताओं से कहीं आगे हैं।यही नहीं, वे बीजेपी के भी लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली या राजनाथ सिंह जैसे नेताओं से भी इस मामले में आगे बताए जा रहे हैं। लेकिन जहां एक तरफ वे बीजेपी के लिए सबसे मजबूत पहलू साबित हो सकते हैं, वहीं उनकी शख्सियत इतनी विवादास्पद है कि उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ना जोखिम भरा दांव भी साबित हो सकता है।
नेतृत्व तय करना मुश्किल: गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को उनकी पार्टी 2014 (या उससे पहले भी मध्यावधि चुनाव की गुंजाइश) के आम चुनावों में प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट नहीं कर रही है। यह अलग बात है कि पार्टी के नेता व्यक्तिगत तौर पर यह स्वीकार करते हैं कि नरेंद्र मोदी ही वह करिश्माई नेता हैं जो पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के मजबूत दावेदार हो सकते हैं और वे गांधी परिवार को टक्कर दे सकते हैं। लेकिन पार्टी तमाम सियासी नफानुकसान को देखते हुए मोदी को बतौर पीएम प्रोजेक्ट करने से बच रही है। बीजेपी मोदी को नाराज कर पार्टी के किसी और नेता को भी पीएम के रूप में प्रोजेक्ट नहीं करना चाहती है। यही वजह है कि मोदी पार्टी के लिए मुश्किल साबित हो रहे हैं। बीजेपी के सामने यही चुनौती है कि गुजरात में तो नरेंद्र मोदी की बेहद करिश्माई छवि है और वे इसी के दम पर पार्टी को ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जितवा देंगे। लेकिन गुजरात से बाहर देश के अन्य हिस्सों में मोदी पर दांव लगाना बेहद जोखिम भरा साबित हो सकता है। जानकारों के मुताबिक बीजेपी को ऐसे नेता की जरूरत है जो पहले अपने वोटर बेस को बचा सके और फिर जीत सुनिश्चित करने के लिए दूसरे वोटरों को भी रिझा सके। अटल बिहारी वाजपेयी ने ऐसा ही किया था। अटल ऐसे मुखौटे थे जिससे बीजेपी ने अपने मूल तत्वों को बचाए रखते हुए सेक्यूलर लोगों को रिझाने में भी कामयाबी हासिल की थी।
मुद्दों के हाइजैक होने की आशंका: नरेंद्र मोदी की वजह से हिंदुत्व का मुद्दा हावी हो जाता है। मोदी के समर्थक और विरोधी उनके विकास पर जोर देने के तमाम दावों के बावजूद हिंदुत्व पर ही विरोध और समर्थन के दो खांचों में बंट जाते हैं। मोदी को आगे लाने में यही खतरा है कि सुशासन, विकास, महंगाई कम करना, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था जैसे मुद्दे दूसरे पायदान पर चले जाएंगे और हिंदुत्व का मुद्दा सबसे आगे हो जाएगा। अगर ऐसा होता है तो देश के शहरी मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा बीजेपी से छिटक सकता है, जो आम तौर पर पार्टी का वोटबैंक समझा जाता है।
विकल्प नहीं तैयार: मोदी गुजरात में व्यापक जनाधार वाले नेता हैं, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उनकी ऐसी स्वीकार्यता होगी, ऐसा नहीं माना जा सकता। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी पर बीजेपी ने अपनी निर्भरता काफी बढ़ा रखी है। पार्टी ने उनका विकल्प ही नहीं तैयार किया है। बीजेपी दो मोर्चों पर गलत दिशा में जा रही है। एक तरफ न ही पार्टी अपना नेतृत्व तय कर पा रही है और दूसरी तरफ न ही पार्टी अपनी राजनीतिक कमजोरियों और मजबूत पक्ष का आकलन ही कर पा रही है। नेतृत्व के मामले में पार्टी के पास नरेंद्र मोदी के विकल्प के रूप में कोई प्लान ‘बी’ नहीं है। पार्टी के पास अपनी राजनीतिक ब्रैंडिंग के लिए भी कोई ठोस योजना नहीं है। पार्टी को अभी पता नहीं है कि वह चुनावों के वक्त देश को अपना क्या मजबूत पक्ष दिखाएगी और और अपनी किन उपलब्धियों को आधार बनाकर वोट मांगेगी। बीजेपी को इस वक्त ऐसे नेता की जरूरत है जो बीजेपी की ब्रैंड अपील को मजबूत करने के साथ-साथ उन लोकसभा क्षेत्रों में भी बीजेपी को कमजोर न होने दे जहां अभी उसका मजबूत आधार नहीं है। सुषमा स्वराज और अरुण जेटली पार्टी और गठबंधन पार्टियों के लिए स्वीकार्य उम्मीदवार हो सकते हैं, लेकिन दोनों के ही पास मजबूत वोट आधार नहीं है। वे ऐसे मामलों में फैसले लेने में असमर्थ होंगे जिनमें जनता के समर्थन की जरूरत होगी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो पार्टी के अंदर और गठबंधन पार्टियों को साथ लेकर सुधार लागू करने के मामले में वे मनमोहन सिंह से बेहतर साबित नहीं होंगे। राज्यों से मजबूत नेताओं को लाने के क्रम में पार्टी शिवराज सिंह चौहान के नाम पर भी विचार कर सकती है लेकिन मध्य प्रदेश में चुनाव नजदीक है और वे उसमें ज्यादा व्यस्त रहेंगे। ऐसी स्थिति में छत्तीसगढ़ के रमन सिंह और राजस्थान की वसुंधरा राजे सिंधिया के नाम पर भी विचार किया जा सकता है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में चुनाव जीतकर सरकार बनाने के लिए भाजपा को कम से कम 200 सीटों की जरूरत होगी। हालांकि मौजूदा हालात में इसकी संभावना कम ही है। 200 सीटों के बिना नरेंद्र मोदी के समर्थन में अन्य पार्टियों का आना टेढ़ी खीर होगा। नीतीश कुमार का रुख तो अभी से साफ ही है। इसका मतलब यह है कि 2014 के लोकसभा चुनावों के लिए बीजेपी को एक वैकल्पिक योजना की भी जरूरत है। यानी पार्टी को ऐसा नेता चाहिए जिसे आगामी लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी का चेहरा बनाया जा सके। भले ही गुजरात चुनावों का नतीजा कुछ भी हो लेकिन बीजेपी को अभी से एक ऐसे राष्ट्रीय नेतृत्व की तलाश शुरु कर देनी चाहिए जो नरेंद्र मोदी का विकल्प हो सके। समर्थन देने को कई पार्टियां राजी नहीं नरेंद्र मोदी के साथ समस्या यह भी है कि एनडीए के बाहर और भीतर की कई पार्टियां उनके नाम पर भड़क जाती हैं। एनडीए में शामिल जेडी (यू) तो मोदी का खुलेआम विरोध करती है। जेडी (यू) के नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोदी का नाम सुनकर ही भड़क जाते हैं। अगले लोकसभा चुनावों से पहले बीजेपी तृणमूल कांग्रेस, बीजेडी और एआईएडीएमके जैसी पार्टियों की तरफ भी उम्मीद भरी निगाहों से देख रही है। लेकिन ये सभी पार्टियां मोदी के नाम पर समर्थन के लिए शायद ही राजी होंगी। यही वजह है कि नए और संभावित सहयोगियों के दूर रहने के जोखिम के अलावा मोदी की वजह से एनडीए के मौजूदा ढांचे के बिखरने का भी खतरा बना हुआ है।
सांप्रदायिक छवि: नरेंद्र मोदी बहुत ही विवादास्पद नेता हैं। उन्हें पसंद और नापसंद करने वालों की बड़ी तादाद है। कुछ लोगों के लिए वे किसी नायक से कम नहीं हैं तो कुछ लोगों की नज़रों में वे गुनहगार हैं। विकास के तमाम काम के बावजूद 2002 के गुजरात दंगों के दाग से वे आज तक पीछा नहीं छुड़ा पाए हैं। देश के अल्पसंख्यक समाज का एक बड़ा तबका आज भी उन्हें माफ नहीं कर पाया है। हालांकि, आज तक किसी भी अदालती फैसले या रिपोर्ट में मोदी को दंगों के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है।
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