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नरेंद्र मोदी को केंद्रीय मंच पर लाने के फ़ैसले से नाराज़ भारतीय जनता पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी को मनाने में सर संघचालक मोहन भागवत की भूमिका की बात सार्वजनिक रूप से स्वीकार किए जाने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ असहज महसूस कर रहा है.
पर राजनीति से संघ का द्वंद्वात्मक रिश्ता रहा है.
इसीलिए जनसंघ के शुरुआती दिनों में राजनीति की दिशा में क़दम बढ़ा रहे स्वयंसेवकों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दूसरे सर संघचालक माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने एक महत्वपूर्ण सलाह दी थी.
जनसंघ के गठन के बाद 5 मार्च 1960 को उन्होंने इंदौर में स्पष्ट किया कि राजनीति में जाने वाले स्वयंसेवकों की डोर दरअसल संघ के हाथों में ही रहेगी.
उन्होंने कहा, “हम जानते हैं कि कुछ स्वयंसेवक राजनीति में काम करते हैं, जहाँ उन्हें बैठकें आयोजित करनी होती हैं, नारे लगाने होते हैं और जुलूस निकालने होते हैं. हमारे काम में इन सबकी कोई जगह नहीं है. एक नाटक के पात्रों की तरह जो भूमिका निभाने को कहा जाए उसे अच्छी तरह से निभाया जाना चाहिए. पर कुछ स्वयंसेवक नट की भूमिका से आगे बढ़कर अपने दिलों में अति उत्साह ले आते हैं. यहाँ तक कि वो फिर हमारे काम के नहीं रहते.”
आख़िर संघ बार-बार इस बात को क्यों दोहराता है कि उसका राजनीति से कोई सरोकार नहीं है?
इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि काफ़ी दिलचस्प है.
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) पर लगे प्रतिबंध को हटाते समय तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने संघ के नेताओं से वचन लिया था कि उसका एक खुला संविधान होगा और वो राजनीति में दख़ल नहीं देंगे.
इससे पहले आरएसएस रहस्य की परतों में रहने वाला संगठन था, जिसका न कोई संविधान था और न ही सदस्यता रजिस्टर. सदस्यता रजिस्टर तो आज भी नहीं है पर संघ ने अपना संविधान ज़रूर बना रखा है और पदाधिकारियों को नियमित रूप से आम सहमति से ‘चुना’ भी जाता है.
महात्मा गाँधी की हत्या करने वाले नाथूराम गोडसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे.
सरदार वल्लभभाई पटेल ने अपनी चिट्ठियों में इस बात पर अफ़सोस जताया था कि महात्मा गाँधी की हत्या पर संघ के लोगों ने ख़ुशी ज़ाहिर की और मिठाइयाँ बाँटीं.
बहरहाल, प्रतिबंध हटाने के लिए रखी गई शर्तें संघ नेताओं ने मानीं और तभी से संघ सीधे-सीधे राजनीति में नहीं उतरता पर बीजेपी के ज़रिए राजनीति को ‘दिशा देता है’.
आडवाणी को मनाने में सर संघचालक की भूमिका पर मीडिया के सामने राजनाथ सिंह के बयान देने पर संघ की असहजता को समझा जा सकता है.
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